विश्व और भारत में जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव : बीजिंग से दिल्ली तक

By Dr. Vijay A senior Faculty of Delhi (8447410108)
दिल्ली में जब सर्दियों की शुरुआत होती है और समूचा एनसीआर प्रदूषण की चपेट में होता है, उसी दौरान संयुक्त राष्ट्र की कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज की जलवायु परिवर्तन वार्ता भी चल रही होती है। जर्मनी के बॉन शहर में 6 नवंबर को इसका आगाज हो चुका है। मकसद होता है कि कैसे सन 2100 तक वैश्विक तापमान की बढ़ोतरी को दो डिग्री से नीचे रखा जाए, क्योंकि आज जैसी रफ्तार से तो यह वृद्धि तीन डिग्री से भी ज्यादा होने की आशंका है। इसके साथ ही उन उलझे मुद्दों को सुलझाने की भी फिर से कोशिश शुरू हुई है, जो हर जलवायु परिवर्तन वार्ता में तो सुलझते दिखते हैं, लेकिन जब वार्ता की सहमतियों पर कार्रवाई का मौका आता है, तो विश्व समुदाय में वार्ता के दौरान वाली एकजुटता गायब हो जाती है।
कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज के पेरिस में हुए समझौते में पिछले साल कई मुद्दों पर सहमति बनती दिखी थी। पेरिस समझौते की सबसे बड़ी भावना यही थी कि पूरा विश्व समुदाय इस खतरे से निपटने के लिए एकजुट हुआ।

डोनाल्ड ट्रंप का एलान
 पर सत्ता परिवर्तन के बाद नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने समझौते से अलग होने का एलान कर मानो बम फोड़ दिया है। इसलिए आज बॉन में जलवायु परिवर्तन वार्ता की सबसे बड़ी चुनौती पेरिस समझौते के मूल सार यानी एकजुट होकर कार्य करने की भावना को बचाए रखने की पैदा हो गई है। खतरा यह है कि अमेरिका की देखादेखी कई और विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ सकते हैं। ऐसा हुआ, तो गरीब और विकासशील देशों की चिंताएं बढ़ेंगी। पेरिस जलवायु समझौते पर 190 देश सहमति जता चुके थे और इसके क्रियान्वयन पर आगे बढ़ रहे थे, लेकिन इसमें आया गतिरोध भारत के लिए अच्छा नहीं है। खासकर उस स्थिति में, जब भारत खुद बढ़-चढ़कर इस समस्या से निपटने के लिए कार्य कर रहा हो। हमारे जैसे अन्य देशों के लिए भी यह चिंता की बात है।

भारत में मौसम का जो रौद्र रूप
दरअसल, हमारे देश में पिछले कुछ साल से मौसम का जो रौद्र रूप दिख रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। मुंबई की बारिश हो, केदारनाथ की तबाही या चेन्नई की हालिया तबाही वाली बारिश। दिल्ली में छाई प्रदूषण की परत को जलवायु परिवर्तन से अलग कैसे मान लें? किसानों के पराली जलाने, निर्माण गतिविधियों या वाहनों की संख्या कोई साल-दो साल के भीतर पैदा हुई समस्याएं तो हैं नहीं, लेकिन धुंध की परत कुछ वर्षों से ही क्यों बन रही है। जाहिर है, मौसम का मिजाज बदला है, जो प्रदूषण को छंटने नहीं दे रहा, यानी खतरा भारत पर इसलिए बड़ा है, क्योंकि यहां आबादी ज्यादा है, संसाधन कम।
मौसम की अति की कोई भी घटना हमें ज्यादा नुकसान देती है। इसलिए इस वार्ता में भारत व विकासशील दुनिया के लिए सबसे पहला कदम तो यही होगा कि वह पेरिस समझौते पर आगे बढ़ने के लिए सबको साथ लें। बाकी मुद्दे मसलन, हरित तकनीकें और हरित कोष का मुद्दा जस का तस है। एक तरफ, 2020 तक इस कोष में सालाना 100 अरब डॉलर जमा कराने का लक्ष्य है, तो दूसरी तरफ विकसित देश इसके लिए तैयार नहीं दिखते। कोष का लक्ष्य हासिल होना फिलहाल सफल होता नहीं दिख रहा। सवाल गरीब और विकासशील देशों के महंगी हरित तकनीक हासिल करने का भी है! विकसित देश इन्हें मुफ्त देने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि तकनीकें उनकी नहीं, कंपनियों की हैं, और कंपनियां मुफ्त नहीं दे सकतीं। पर यह उनका दोमुंहापन है। वे हरित कोष में धन दें, तो इसका इस्तेमाल हरित तकनीक पाने में किया जा सकता है, पर ऐसा होता दिखता नहीं। उम्मीद है हरित कोष को लेकर विकसित देश अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आएंगे, क्योंकि 2020 अब दूर नहीं है।
पेरिस वार्ता के दौरान उठे एक अन्य बडे़ मुद्दे पर भी बॉन में चर्चा होनी चाहिए। यह मुआवजे से जुड़ा है। जलवायु परिवर्तन की घटना से क्षति पहुंचती है, तो इसकी भरपाई करने का तंत्र बनना चाहिए। तब देशों ने इस पर भी सहमति दी थी, लेकिन इसके लिए तंत्र विकसित करने पर अभी काम नहीं हुआ है। कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज में यदि इसके लिए कोई फ्रेमवर्क इस बार बनता है, तो देशों के लिए इसका क्रियान्वयन आसान होगा। इस मुद्दे पर बात आगे बढ़ी, तो सबसे ज्यादा लाभ भारत जैसे देशों की गरीब जनता और किसानों को होगा। 



भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणाम होंगे। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप कृषि उत्पादन में गिरावट के कारण मुद्रास्फिति की दर बढ़ेगी परिणामस्वरुप गरीबी, भूखमरी तथा बेरोजगारी में वृद्धि के कारण अपराधिक घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। फसलों की असफलता से किसान आत्महत्या को मजबूर होंगे। संक्रामक बिमारियों का प्रकोप बढ़ने से इन बिमारियों से होने वाली मृत्यु दर में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी होगी। जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश की आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा।

          पेरिस समझौते की भावना को बचाने की अहम चुनौती हिन्दुस्तान की भी है 

क्या है जलवायु परिवर्तन?
जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण वैश्विक तपन है जो हरित गृह प्रभाव (Green house effect) का परिणाम है। हरित गृह प्रभाव वह प्रक्रिया जिसमें पृथ्वी से टकराकर लौटने वाली सूर्य की किरणों को वातावरण में उपस्थित कुछ गैसें अवशोषित कर लेती हैं जिसके परिणामस्वरुप पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है। वह गैसें जो हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं को हरितगृह गैस के नाम से जाना जाता है। कार्बन डाईऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) तथा क्षोभमण्डलीय ओजोन (O3) मुख्य हरित गृह गैसें हैं जो हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं। विभिन्न कारणों से वातावरण में इनकी निरन्तर बढ़ती मात्रा से वैश्विक जलवायु परिवर्तन का खतरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

पृथ्वी के सतह का औसत तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है। यह तापमान हरित गृह प्रभाव के न होने पर जो तापमान होता उससे तकरीबन 33डिग्री सेल्सियस अधिक है। हरित गृह गैसों के अभाव में पृथ्वी सतह का अधिकांश भाग -18 डिग्री सेल्सियस के औसत वायु तापमान पर जमा हुआ होता। अतः हरित गृह गैसों का एक सीमा में पृथ्वी के वातावरण में उपस्थिति जीवन के उद्भव, विकास एवं निवास हेतु अनिवार्य है।

जलवायु परिवर्तन के कारण:
नगरीकरण, औद्योगीकरण, कोयले पर आधारित विद्युत तापगृह, तकनीकी तथा परिवहन क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन, कोयला खनन, मानव जीवन के रहन-सहन में परिवर्तन (विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीश्नर तथा परफ्यूम का वृहद पैमाने पर उपयोग), धान की खेती के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व विस्तार, शाकभक्षी पशुओं की जनसंख्या में वृद्धि, आधुनिक कृषि में रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जो हरित गृह गैसों के वातावरण में उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं।


हरित गृह गैसें ( Green House Effect)

कार्बन डॉईऑक्साइड: हरित गृह गैसों में कार्बन डाईऑक्साइड सबसे प्रमुख गैस है जो आमतौर से जीवाश्म ईधनों के जलने से उत्सर्जित होती है। वातावरण में यह गैस 0.5 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 1 है। जैव ईधनों के जलने से प्रति वर्ष 5 बिलियन टन से भी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड का जुड़ाव वातावरण में होता है जिसमें उत्तरी तथा मध्य अमेरिका, एशिया, यूरोप तथा मध्य एशियन गणतंत्रों का योगदान 90 प्रतिशत से भी ज्यादा का होता है। पूर्व-औद्योगीकरण काल की तुलना में वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर आज 31 प्रतिशत तक बढ़ गया है। चूँकि वन कार्बन डाईऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं अतः वन-विनाश भी इस गैस की वातावरण में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। 

वातावरण में 20 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड जुड़ाव के लिए वन:विनाश जिम्मेदार है। वन-विनाश के फलस्वरूप 1850 से 1950 के बीच लगभग 120 बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का वातावरण में जुड़ाव हुआ है। पिछले 100 वर्षों में कार्बन डाईऑक्साइड की वातावरण में 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। वर्ष 1880 से 1890 के बीच कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा लगभग 290 पीपीएम (Parts of per million), वर्ष 1980 में इसकी मात्रा 315 पीपीएम, वर्ष 1990 में 340 पीपीएम तथा वर्ष 2000 में 400 पीपीएम तक बढ़ गई है। ऐसी संभावना है कि वर्ष 2040 तक वातावरण में इस गैस की सान्द्रता 450 पीपीएम तक बढ़ जायेगी। कार्बन डाईऑक्साइड का वैश्विक तपन वृद्धि में 55 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकृत विकसित देश वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड वृद्धि के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।

मीथेन: मीथेन भी एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हरितगृह गैस है जो 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। मीथेन की तपन क्षमता 36 है। यह गैस कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में 20 गुना ज्यादा प्रभावी होती है। पिछले 100 वर्षों में वातावरण में मीथेन की दुगुनी वृद्धि हुई है। धान के खेत, दलदली भूमि तथा अन्य प्रकार की नमभूमियाँ मीथेन गैस के उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत है। 

एक अनुमान के अनुसार वातावरण में 20 प्रतिशत मीथेन की वृद्धि का कारण धान की खेती तथा 6 प्रतिशत कोयला खनन है। इसके अतिरिक्त, शाकभक्षी पशुओं तथा दीमकों में आंतरिक किण्वन (ईन्टरिक फरमेन्टेशन) भी मीथेन उत्सर्जन के स्रोत हैं। वर्ष 1750 की तुलना में मीथेन की मात्रा में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक मीथेन एक प्रमुख हरितगृह गैस होगी। इस गैस का वैश्विक तपन में 20 प्रतिशत का योगदान है। विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में मीथेन उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स: क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (Chlorofluorocarbons) रसायन भी हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी होते हैं। क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायनों का इस्तेमाल आमतौर से प्रशीतक, उत्प्रेरक तथा ठोस प्लास्टिक झाग के रुप में होता है। इस समूह के रसायन वातावरण में काफी स्थायी होते हैं और यह दो प्रकार के होते हैं- हाइड्रो फ्लोरो कार्बन तथा पर फ्लोरो कार्बन। हाइड्रो फ्लोरो कार्बन की वातावरण में वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है तथा इसकी तपन क्षमता 14600 है। पर फ्लोरो कार्बन की भी वार्षिक वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है जबकि इसकी तपन क्षमता 17000 है। 

हाइड्रो फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 6 प्रतिशत का योगदान है जबकि पर फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 12 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की वातावरण में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। अतः विकासशील देशों की तुलना में औद्योगीकृत विकसित देश क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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